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भारतीय मानसिकता दोहरेपन की शिकार है क्योंकि यहाँ -जिन बातों का व्यवहारिक उपयोग नहीं करना होता उन्ही बातों को उपदेश या नीति वाक्यों में ढाल दिया जाता है. पूरी सामाजिक व्यवस्था यह जानती है की झूठ बोलना पाप है. किन्तु झूठ धड़ल्ले से बोला जाता है और झूठ इतना अधिक व्यवहा,र में लाया जाता है कि वह सामाजिक अनिवार्यता बन गया है. ऐसे वातावरण में सत्य के लिए स्थान शेष नहीं रहता. भारत जिन उच्च-आदर्श मूल्यों की बात करता है यदि उन्हें स्थापित किया जाये तथा व्यवहार में लाया जाये तो एक ऐसे समाज की तस्वीर बनती है जिसमें अच्छाई एवं आदर्शों के अलावा कुछ भी न होगा. पर तस्वीर इसके ठीक विपरीत है. व्यवहारिकता में यहाँ इन सब बातों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं है यही कारण है कि सच झूठ एवं भ्रम के गुरुत्व के नीचे दबा पड़ा रहता है और काफी परिश्रम के बाद ही निकालने पर ही बाहर आ पाता है.भारतीय समाज में व्याप्त इसी दोहरेपन के कारण यह जानते हुए भी कि सच बोलना चाहिए वह सच से दूर तक वास्ता नहीं रखना चाहता. जब सच के प्रति यह अपच की भावना है तो सत्य को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता. इसके अलावा ये सवाल भी उठता है कि सच इतना दुरूह क्यों है? जबकि वह सहज व दो टूक हुआ करता है. सच कि इस सहजता को पचा पाना भारतीय मानसिकता के लिए सदा ही मुश्किल रहा है.जिन उच्च आदर्शों या नैतिकता कि बात ढ़ोल बजा-बजा कर करते हैं क्यों उसको आम आदमी व्यवहारिकता में लेन से परहेज करता आया है?
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